जैसा कि एक प्रचलन हो गया है कि राजनीतिक दल या सत्ता रूढ़ दल अपनी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष,मंत्री, मुख्यमंत्री आदि का चयन जातीय अंकगणित को ध्यान में रखकर कर रहे हैं,ऐसे में यूपी चुनाव में बुरी तरह मात खाई कांग्रेस के समक्ष प्रदेश अध्यक्ष का चयन एक चुनौती है। भाजपा ने अपने प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह को कैबिनेट में शामिल कर लिया है,वे कुर्मी बिरादरी के हैं। इनके मंत्री बन जाने से भाजपा नया अध्यक्ष चुनेगी लेकिन होगा कौन,इसे लेकर मंथन जारी है और हो सकता है कांग्रेस के पहले वह अपने अध्यक्ष की घोषणा भी कर दे। ठाकुर अध्यक्ष की संभावना नहीं है क्योंकि मुख्यमंत्री स्वयं ठाकुर हैं। मौर्य समाज से डिप्टी सीएम हैं, इसलिए इस समाज से भी अध्यक्ष की संभावना नहीं है, ब्राह्मण के बड़े चेहरे बृजेश पाठक भी डीप्टी सीएम हैं,ऐसे में ब्राम्हण भी अध्यक्ष नहीं होगा।फिर सवाल उठता है कि बीजेपी का नया अध्यक्ष कौन हो सकता है? अध्यक्ष के चुनाव को लेकर पार्टी बहुत सोच समझकर निर्णय लेने वाली है। अभी जो चुनाव संपन्न हुआ है उसमें दो बातें गौर करने लायक है। पहला बसपा का दलित वोट जिसने इस बार भारी तादाद में बीजेपी को वोट किया और दूसरा जाट समाज जिसने भी किसान आंदोलन को धता बताते हुए भाजपा को वोट देकर पश्चिम यूपी में भाजपा के खिलाफ किसान आंदोलन की हवा निकाल दी। भाजपा को अपने इन दोनों वोट वर्ग को 2024 के लोकसभा चुनाव तक हर हाल बचाए रखना है। बीजेपी यदि इन दो समुदाय से किसी एक से अध्यक्ष बनाना चाहेगी तो उसके पास इन समुदायों से चेहरे की कमी नहीं है। भाजपा के निवर्तमान अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह के मंत्री बनने के बाद भाजपा के अंदरखाने दलित या जाट समाज से अध्यक्ष बनाए जाने की चर्चा तेज है। भाजपा शीर्ष नेतृत्व का निर्णय हालांकि चौंकाने वाला होता है जैसा कि अभी मंत्रिमंडल में देखने को मिला है, इसलिए अध्यक्ष कौन होगा,इसे लेकर दावा नहीं किया जा सकता लेकिन ज्यादा उम्मीद है कि भाजपा का अगला अध्यक्ष दलित या जाट समुदाय से हो सकता है।अब बात करते हैं कांग्रेस के संभावित अध्यक्ष की। जी हां पांच प्रदेशों के विधानसभा चुनाव हार जाने के बाद कांग्रेस आलाकमान ने चुनाव वाले राज्यों के अध्यक्षों से इस्तीफा मांग लिया। वैसे तो कांग्रेस का मुश्तकिल तौर पर कोई राष्ट्रीय अध्यक्ष भी नहीं है। सोनिया गांधी ही अंतरिम अध्यक्ष हैं जिसे लेकर पार्टी में घमासान मचा हुआ है। चुनाव में पराजय के पहले तक पूर्व विधायक अजय कुमार लल्लू पार्टी के अध्यक्ष थे। पडरौना जिले से दो बार के विधायक रहे लल्लू इस बार अपनी सीट नहीं बचा पाए। बतौर अध्यक्ष सर्वाधिक बार जेल और धरना प्रदर्शन का रिकॉर्ड उनके नाम रहा। वे कांदू बनिया समाज से ताल्लुक रखते हैं और बतौर अध्यक्ष वे प्रियंका गांधी के खास पसंद थे। अध्यक्ष रहते हुए उनके हिस्से में 403 में से महज दो सीट जीतने का भी रिकॉर्ड है। हालांकि इसके पहले चाहे निर्मल खत्री रहे हों ,राज बब्बर या कोई और,ये लोग भी कुछ खास नहीं कर पाए थे। यूपी में कांग्रेस का पराभव काल दर असल 1989 से शुरू हुआ जब कांग्रेस के 98 विधायकों को स्व.नारायण दत्त तिवारी ने मुलायम सिंह को सौंप दिया था। उसके बाद से यूपी से कांग्रेस नीचे और नीचे जाती गई। 2017 के चुनाव में पार्टी के महज सात विधायक चुने गए थे जो सबसे शर्मनाक था।2022 का चुनाव आते आते पार्टी के पास पांच विधायक बचे थे और जब चुनाव हुआ तो दो रह गए। पंजाब सहित तीन प्रदेशों की हार से कांग्रेस निःसंदेह नहीं विचलित हुई होगी लेकिन यूपी में सफाए जैसी स्थिति से कांग्रेस का शाक्ड होना स्वाभाविक है। इस चुनाव ने प्रियंका की जी-तोड़ मेहनत पर पानी फेर दिया और लड़की हूं लड़ सकती हूं जैसे क्रांतिकारी नारे की भी हवा निकाल दी साथ ही उन्नाव रेप काण्ड की पीड़िता की मां को प्राप्त महज ,500 वोट,हृदयविदारक घटनाओं के मौके पर हज़ारों हजार संवेदनाओं की सच्चाई भी उजागर कर दी कि ये संवेदनाएं कितने सच होते हैं।खैर जो हुआ सो हुआ! अब नए सिरे से खड़ा होना है। सबसे पहले कांग्रेस के समक्ष कोई जमीनी अध्यक्ष की चुनौती है। कांग्रेस चुंकि कहती है कि वह किसी जाति की राजनीति नहीं करती तो उसे अपने इस सोच को बदलना होगा। आज यूपी में सपा यदि सौ से ऊपर सीटें जीत सकी है तो इसके पीछे उसके साथ यादव और मुस्लिमो का खड़ा होना है। मुस्लिम वोटर इस बार कांग्रेस की ओर झुक रहा था लेकिन उसे योगी सरकार बदलने का जुनून था इसलिए वह बैक हो गया। बहुत कम कांग्रेस उम्मीदवार दिखे जो भाजपा को हराने की स्थिति में थे।कांग्रेस को अपने परंपरागत दलित ब्राम्हण और मुस्लिम वोटरों को ने सिरे से साधना होगा। इसके लिए जोनल वाइज संगठन तैयार करना होगा और इलाकाई हर जाति और समाज के प्रभावशाली लोगों को महत्व पूर्ण पदों पर बैठाना होगा। कोशिश होनी चाहिए कि पुराने किंतु उपेक्षित कांग्रेस जनों को ढूंढा जाय और उन्हें फिर से सम्मान दिया जाय। इससे पार्टी को जातीय संतुलन साधने में सुविधा होगी। जहां तक प्रदेश अध्यक्ष की बात है तो उसे अभी बैकवर्ड से आगे सोचना नहीं है,इसके लिए उसके पास इस चुनाव में जीते वीरेंद्र चौधरी जैसा एक बड़ा नाम मौजूद है। वीरेंद्र चौधरी प्रदेश कमेटी में उपाध्यक्ष रहे हैं और यूपी के कोने-कोने तक सर्वमान्य चेहरा हो सकते हैं। कुर्मी समाज में बेहतर पकड़ रखते हैं। पूर्वांचल में आरपीएन के पार्टी छोड़ने से हुए नुकसान की भरपाई करने के लिए यह जरूरी है,यदि पार्टी ऐसा करना चाहे।
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