कई देशों में कोरोना काल में कम हुए दमा के मामले

बोस्टन । कई देशों में डॉक्टर्स ने नोटिस किया कि कोरोना काल में उनके दमा मरीजों का उनके पास आना कम हो गया। दमा के अटैक में कमी आई। अमेरिका के ओहायो में स्थित नेशनवाइड चिल्ड्रन हॉस्पिटल में स्कारलेट का इलाज करने वाले डॉक्टर डेविड स्टुकस ने कहा कि पूरे अमेरिका में पीडियाट्रिक आईसीयू खाली रहे। दमा के मरीजों में कमी आई है। स्कारलेट खुद पूरे कोरोना पीरियड में अस्पताल नहीं आई। डेविड स्टुकस ने कहा कि कोरोना काल में दमा मरीजों की संख्या बढ़ने का डर था लेकिन हुआ एकदम उल्टा। इंग्लैंड, स्कॉटलैंड और दक्षिण कोरिया में हुई स्टडीज में भी ये बात सामने आई है कि कोरोना काल में इन देशों में भी दमा के मरीजों में कमी आई है। कोरोना काल में पूरी दुनिया में पुरानी बीमारियों के लेकर चल रही भ्रांतियों को तोड़ा है। अमेरिका में हर साल दमा की वजह से 3500 लोगों की मौत होती है। जबकि, 16 लाख के आसपास दमा मरीज इमरजेंसी रूम तक पहुंचते हैं। यह बीमारी कई वजहों से तीव्र हो जाती है। जैसे- वायरस, पोलेन, मोल्ड, धूल, चूहे, कॉक्रोच, धुआं, वायु प्रदूषण आदि। द अटलांटिक में प्रकाशित खबर के अनुसार डॉक्टरों ने दमा मरीजों में सबसे बड़ी दिक्कत ये देखी है कि सर्दी के मौसम, वायु प्रदूषण और फ्लू वायरस की वजह से इन्हें दिक्कत बढ़ जाती है। लेकिन यह समस्या कोरोना काल में देखने को नहीं मिली। क्योंकि लॉकडाउन की वजह से लोग घरों से बाहर निकले नहीं। फ्लू के वायरस की चपेट में नहीं आए। न ही वायु प्रदूषण के संपर्क में आए। दमा अटैक में कमी इसलिए भी आई क्योंकि लोग मास्क लगाकर घूम रहे थे और सोशल डिस्टेंसिंग भी फॉलो कर रहे थे।अमेरिका में अब डॉक्टरों और दमा मरीजों को न्यू नॉर्मल से जूझना होगा। क्योंकि कोरोना काल में दमा की समस्या में कमी आई है। लेकिन अब स्कूल खुल रहे हैं। कॉलेज खुल रहे हैं। बाजार और मॉल्स खुल रहे हैं। ऐसे में दमा के मरीजों पर क्या असर होता है, केस कितने बढ़ते हैं, इन सबके साथ डॉक्टरों को काफी ज्यादा संघर्ष करना होगा। जलवायु में बदलाव। मौसम में परिवर्तन के साथ-साथ कोरोना का ख्याल रखते हुए दमा के मरीजों को नए तरीके से ट्रीट करना होगा। बोस्टन स्थित ब्रिघम एंड वुमेंस हॉस्पिटल के पल्मोनोलॉजिस्ट इलियट इजरायल ने साल 2018 एक स्टडी की थी, जिसमें उन्होंने ब्लैक, हिस्पैनिक, लैटिन वयस्कों का अध्ययन किया था, जो दमा से पीड़ित हैं। ताकि घरों में रहते हुए उनपर होने वाले दमा के हमलों को समझ सकें। इस स्टडी को उन्होंने प्रीपेयर नाम दिया था। उन्होंने दो तरह लॉन्ग टर्म अस्थमा मेडिकेशन की तुलना की थी। जैसे- सूंघ कर लिए जाने वाले स्टेरॉयड्स। उनकी टीम ने मार्च 2020 में अपने आखिरी मरीज को रिकॉर्ड किया था। इसके एक हफ्ते बाद ही कोविड-19 की वजह से पहला लॉकडाउन लगा था। इजरायल ने कहा कि हम किस्मत वाले थे क्योंकि हमारी स्टडी की टाइमिंग बेहतरीन है। हमारे पास कोरोना से ठीक पहले का डेटा मौजूद है। हमारी स्टडी में शामिल दमा मरीजों ने हर महीने सवालों का एक फॉर्म अपने घरों से भरकर हमें भेजा है। उन्होंने देखा कि उनके दमा मरीजों में लॉकडाउन पीरियड में अटैक कम आए।ब्रिघम एंड वुमेंस हॉस्पिटल के दूसरे पल्मोनोलॉजिस्ट जस्टिन साल्सिसियोली ने कहा कि ये बात गलत थी कि दमा मरीज कोरोना काल के शुरुआत में अस्पताल इसलिए नहीं आए क्योंकि उन्हें संक्रमित होने का डर था। लेकिन अगर वो घर में परेशान हो रहे होते तो वो अपने डॉक्टर या अस्पताल से फोन करके कंसल्ट करते। लेकिन ऐसा बेहद कम हुआ। हमारी स्टडी में यह बात साफ हो गई कि कोरोना काल में घरों में रहने वाले दमा मरीजों में आने वाले अस्थमा अटैक में 40 फीसदी की कमी आई है। इमरजेंसी रूम तक पहुंचने वाले मामलों में भारी कमी आई है। यह सच है और इसे लेकर सबूत हमारे पास है।लॉकडाउन की वजह से हमारे सवाल-जवाब में कोई कमी नहीं आई। हमने देखा कि लॉकडाउन के समय कोरोना के अलावा बाकी बीमारियों से संबंधित केस कम आ रहे थे। ऐसे में उन्होंने अपनी स्टडी के लिए चुने गए दमा मरीजों पर नजर रखनी शुरू की।