“तुलसीदास ईश्वरीय सत्ता की आवश्यकता को गहराई से समझते थे”– डॉ० रागिनी अवस्थी

प्रयागराज।आज (२३ अगस्त) तुलसीदास की ५२६वीं जन्मतिथि है। ‘सर्जनपीठ’, प्रयागराज की ओर से कल (२२ अगस्त) ‘सारस्वत सदन-सभागार’, अलोपीबाग़, प्रयागराज से ‘जनकवि तुलसीदास की भक्तिभावना का वर्तमान परिवेश’ विषयक एक राष्ट्रीय बौद्धिक परिसंवाद का आयोजन किया गया। यदि कोई जनकवि है तो वह हैं, ‘तुलसीदास’। ‘वैराग्य संदीपनी’, ‘श्री रामचरितमानस’, ‘विनयपत्रिका’, ‘गीतावली’, ‘कृष्णगीतावली’, ‘कवितावली’, ‘सतसई’, ‘दोहावली’, ‘रामाज्ञाप्रश्न’, ‘जानकीमंगल’, ‘पार्वतीमंगल’, ‘ ‘रामललानहछू’, ‘बरवै रामायण’, ‘हनुमान चालीसा’ तथा ‘हनुमानबाहुक’ के प्रणेता तुलसीदास का जन्म श्रावणमास के शुक्लपक्ष की सप्तमी-तिथि को चित्रकूट के राजापुर गाँव मे हुआ था। जनश्रुति है कि उनका जन्म हुआ तब उनके मुख से ‘राम’ शब्द निकला था, तभी उनका नामकरण ‘रामबोला’ कर दिया गया था। ‘सर्जनपीठ’ की ओर से आयोजित इस राष्ट्रीय आयोजन मे व्यक्त किये गये विचारों की यह पृष्ठभूमि थी। विषय-प्रवर्तन करते हुए, आयोजक एवं भाषाविज्ञानी आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने कहा, “तुलसी-जैसा सार्वकालिक भक्त आज भी नहीं दिखता; क्योंकि उन्होंने राम की जिस मर्यादा-सत्ता की प्रतिष्ठा की है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इसका मुख्य कारण यह है कि अपने अनन्य राम के प्रति उनकी निष्काम भक्ति रही है। श्री रामचन्द्र अपने भक्तवृन्द की महत्ता को स्वीकार करते हुए, कहते हैं, “हम भक्तन के भक्त हमारे।” आज के परिवेश मे तुलसी के काव्य-वैभव की कल्पना तो की जा सकती है; उसकी सत्ता-महत्ता का अनुभव भी किया जा सकता है; परन्तु जिस समर्पण, श्रद्धा और विश्वास के साथ तुलसीदास ने रामगाथा का निरूपण किया है, उसके समानान्तर कृति-प्रणयन का विचार भी करना, आत्मघाती है। इस दिशा मे जाने कितने प्रयास किये गये; उनकी चौपाइयों और दोहों को ‘मिथ्यावाद’ के घेरे मे लाने के प्रयास भी किये गये; परन्तु वैसे कृत्य करनेवाले समाज-द्वारा दुत्कारे गये।”चित्रकूट से समाजशास्त्री और मुख्य अतिथि डॉ० रागिनी अवस्थी का मानना है, ”तुलसीदास ने अनुभव किया था कि दिग्भ्रमित समाज के लिए निर्गुण ब्रह्म का उपदेश व्यर्थ है। यही कारण था कि उन्होंने पथभ्रष्ट समाज को सन्मार्ग पर लाने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम की भक्ति का साधन अपनाते हुए, लोकमंगलकारी उपदेश किया था। उन्होंने व्यथित समाज की पुकार सुननेवाली तत्काल प्रकट होकर उसकी रक्षा करनेवाली एक सगुण-साकार ईश्वरीय सत्ता की आवश्यकता को गहराई से समझा था।”डिण्डीगुल (थिण्डुक्कल), तमिलनाडु से आलोचक और प्राध्यापक डॉ० नवेन्दु शुक्ल ने अध्यक्ष के रूप मे कहा, “श्री रामचरितमानस और विनयपत्रिका मे ही तुलसी की भक्ति-भावना अभिव्यक्त हुई है। तुलसी की भक्ति दास्यभाव की भक्ति है, जो अपने प्रभु राम के प्रति पूर्णत: समर्पित थे। वे श्री रामचरितमानस के माध्यम से सुस्पष्ट घोषणा करते हैं :– ‘सेवक-सव्य’-भाव के बिना कोई व्यक्ति इस संसार-सागर से तर नहीं सकता।” जामनगर, गुजरात से दर्शनविद् एवं कवयित्री डॉ० ज्ञानप्रिया ने विशिष्ट अतिथि के रूप मे बताया, “गोस्वामी तुलसीदास के काव्य का दार्शनिक आधार भक्ति है। उनका मानना है, संसार मिथ्या है और प्रभुशक्ति ही सत्य है; संसार के प्रति आसक्त होना, मोह है तथा प्रभु की ओर उन्मुख होना, प्रेम अथवा भक्ति है। कविता की दार्शनिकता का प्रतिपादन करते हुए, गोस्वामी जी ने ईश्वर, जगत्, संसार तथा जीव के स्वरूप और उनके पारस्परिक सम्बन्धों की विवेचना की है।”