जौनपुर। जनपद के ग्रामीण इलाकों में बढ़ई का कार्य दिन प्रतिदिन सिमटता जा रहा है जिस कारण इस काम से जुड़े लोग रोजगार के लिए शहरी इलाकों की ओर पलायन कर रहे हैं। गांवों में जो लोग बढ़ई का कार्य करते थे वही लोग लोहारी का भी कार्य कर दिया करते थे। बदलते समय के साथ गांव में बढ़ईगिरी का काम घटता चला गया।बैल से चलने वाले देशी हलों का स्थान ट्रैक्टर ने ले लिया। देशी हंसिया की जगह दांतेदार रेडीमेड हंसिया बाजारों में मिलने लगी। पहले लोगों के मकान या तो खपरैल के होते थे या छप्पर होते थे जिसमें लकड़ी का प्रयोग खूब होता था जिस कारण बढ़ईगिरी करने वालों को खूब काम गांवों में ही मिल जाता था। सुबह लोहारी के काम के लिए दस बीस लोग किसी न किसी प्रकार का काम लेकर लुहारों के दरवाजे पहुंच जाते थे। भट्ठी पर लोहे को तपाकर हथौड़े की टनकार सुबह तड़के ही शुरू हो जाती थी लेकिन अब गांवों में वह दृश्य देखने को नहीं मिलता है। विकास खंड मछलीशहर के गांव बामी के राममनोहर विश्वकर्मा कहते हैं कि निश्चित रूप उनके काम का दायरा अब घट गया है लेकिन अभी भी लोग उनके पास फावड़ा,कुदाल,गहदाला,खुरपी हंसिया को पिटवाने को लाते हैं।इन सब में लकड़ी का बेट भी लगवाने को लाते हैं। नये बन रहे घरों में दरवाजे और खिड़कियां लगाने के लिए वह गांव में जाते हैं। वह कहते हैं कि शादी विवाह के अवसर पर उनकी पूछ आज भी बनी हुई है। लड़कों की शादी में लकड़ी का तोता और लड़कियों की शादी में लकड़ी का तोता और पीढ़ा देने की पुरानी परंपरा आज भी यथावत है। दूल्हा कितने भी बड़े घर का क्यों न हो जयमाल के बाद शादी के समय उनके दिये गये पीढ़े पर ही बैठता है जिसे देखकर उन्हें अपने पेशे प्रति गर्व की अनुभूति होती है।
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