गांवन औ बागन मा बगरो बसंत हैं

बिलगांव। शीतल मंद सुगंधित बयार नव कलियो मे खुमार, शास्य श्यामलता धरती हरी धानी चूनर ओढ़ ली है। ऋतुराज बसंत का शुभाआगमन हो चुका है। बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती का जन्मोत्सव भी मनाया जाता है। फूली हुई सरसों को देखकर लगता है जैसे धरती पीत साटिका धारण कर ऋतुराज बसंत के स्वागत को उतावले हो रहे हैं। फूली हुई सरसों ऐसी प्रतीत होती है जैसे वसुंधरा पीत साटिका धारण कर बसंत के आगमन पर उससे सवारने पहले मिलने को आतुर है। शीश में स्वागत कलशी लिए अलसी ऋतु पति की प्रतीक्षा में झूम रही है। न ही ज्यादा शीतल न ही धूप। मदमस्त वातावरण। आखिर यूं ही बसंत है, षट ऋतु में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बसंत का मौसम ही निराला है। आम की मद माती बौर मादक सुगंधमय आरती लेकर बसंत के आगमन को निहार रही है। चारों ओर नई फसलों की हरियाली जैसे मखमल की बिछौना बिछाकर ऋतुराज को बैठने का आमंत्रण दे रही है पदाय वृक्ष समुदाय अपने जीण पत्तों का परित्याग कर नव किसलय धारण कर रहे हैं अब तक उपलब्ध वैदिक संस्कृति साहित्य के प्रणेता हमारे दिव्य ज्ञान संपन्न ऋषि-मुनियों साहित्य संगीत साधकों के द्वारा रचित काव्य धारा ने शायद ही कोई ऐसा शद साहित्य हो जहां पर ऋतुराज की महिमा का गायन न हुआ हो अर्थात कोई भी ऐसा मनीषी नहीं हुआ जिन्होंने अपने काव्य में ऋतुराज की महिमा गायन से अछूता न रहा हो कविवर पद्माकर ने तो बनन मे बागन में बगरयो बसंत है कह कर रितु पति की आरती उतारी है क्यों न हो उसका गुणगान जिसके आगमन के साथ ही एक दिव्य आनंद की अनुभूति होती है हमारे बुंदेलखंड में एक कहावत है कि आई माघ की पाचै बूढ बैलवा नाचै नई नई फसलों के आगमन की खुशी का प्रवेश द्वार ऋतुराज बसंत ही है। वाणी की देवी मां सरस्वती का जन्मोत्सव भगवान भूतेश्वर शंकर के बेलपत्र का अभिषेक का संगम कितना आनंदमई है ब्रह्मबेला मे शिवालयों मे हर हर गंगे का उद्घोष पुण्य सलिला नदियों के किनारे कल्प प्रवासियों भज ना नंद नवीन स्वर के सुख का संचार करते हैं जीवन धन्य हो जाता है हमारी धार्मिक परंपराएं हमें जीने की कला सीखने की प्रेरणा प्रदान करती है। आज भी कविगण इनकी महिमा लिखे बिना रह पाए स्थावर संगम जगत भी पुलकित होकर बसंत आगमन का उद्घोष नव पल्लव मनोहर कुस मो के माध्यम से कर रहा है शुक सारि क़ादि पक्षियों की सुमधुर.बोलियां मानों स्वागत गीत गाकर बसंत का अभिनंदन कर रही हैं।