लखनऊ।लैब्स में सीमा से अधिक हीमोलिसिस तथा लाइपेमिया के सैंपल आना आम बात है। कई बार कोरी आँखों से इसकी उपस्थिति नगण्य लगती है किंतु इसका प्रभाव रिपोर्टिंग पर पड़ता है। सरोजनी नायडू मेडिकल कॉलेज, आगरा से आयीं बायोकेमिस्ट्री विभागाध्यक्ष, डॉ कामना सिंह ने समझाया कि किस प्रकार थ्घ्प् सोल्यूशन के उपयोग से इस प्रभाव से बचा जा सकता है।
संस्थान के निदेशक डॉ सी एम सिंह ने कहा कि संस्थान में आईआरएफ़ होने के कारण अधिकांश जाँचे यहीं हो जाती हैं।एनजीएस जैसी उच्च सुविधा को मरीज़ों के हित हेतु संस्थान में लाने के लिए विभाग को प्रेरित किया । लोहिया संस्थान से ही ऑब्स एंड गायनी विभाग की एसोसियेट प्रोफेसर डॉ रूपिता कुलश्रेष्ठ ने बताया कि ड्युअल एवम क्वाड्रूपल टेस्ट के माध्यम से बच्चे के पैदा होने से पहले ही आनुवंशिक विसंगतियों का पता किया जा सकता है। संदेह की स्थिति में जेनेटिक टेस्टिंग भी की जा सकती है। इसके अतिरिक्त डॉ रूपिता ने गर्भावस्था में ही हाइपरटेंसिव डिसऑर्डर्स बायोमाकर्स के महत्व पर भी प्रकाश डाला।डॉ अरविंद चौधरी, संस्थापक, कॉर्डन जीनोमिक्स ने विस्तारपूर्वक बताया कि जेनेटिक जाँचों के माध्यम से संक्रामक रोगों को समय से पहचाना जा सकता है।ये जाँचे फ़िलहाल थोड़ी महँगी होती हैं परंतु समय पर रोग पहचान होने से मरीज़ को हॉस्पिटल में कम समय बिताना होगा जिससे अंततोगत्वा मरीज़ को आर्थिक एवं शारीरिक सुविधा होगी।
संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान, लखनऊ से आए एसोसियेट प्रोफेसर डॉ राघवेंद्रन लिंघाइया ने मास स्पेक्ट्रोमेट्री को भविष्य की बायोचमिस्ट्री प्रयोगशालों के लिये अपरिहार्य बताया क्योंकि ये मशीनें बहुत ही संवेदनशील होती है और मिलते जुलते सूक्ष्म अणुओं में भी भेद करने में सक्षम होती हैं।यहाँ तक कि कैंसर डायग्नोसिस में भी यह तकनीक काफ़ी कारगर है ।
इस अवसर पर जाने माने वरिष्ठ पल्मोनोलोजिस्ट डॉ राजेंद्र प्रसाद भी उपस्थित रहे, उन्होंने बताया कि किस प्रकार नयी निदान सुविधाओं द्वारा ब्रांकोपल्मोनरी एस्पेरिजिलोसिस जैसे भयावह किंतु उपचार किए जा सकने योग्य फंगल इन्फेक्शन को पहचाना जा सकता है। कुछ वर्ष पूर्व यह तकनीक ना होने के कारण इसे टीबी या कैंसर से पृथक करना काफ़ी मुश्किल था।
इसके अतिरिक्त उन्होंने कंपोनेंट रेसोल्वड डायग्नॉस्टिक्स का भी ज़िक्र किया, उदाहरणार्थ यदि किसी व्यक्ति को दूध के किसी ख़ास घटक से एलर्जी है तो जाँच द्वारा इसका पता लगाया जा सकता है और संभव है कि वह व्यक्ति दूध को उबालकर अथवा दूध से कुछ ख़ास प्रकार के व्यंजनों का सेवन कर सकता है। सामान्य दिखने वाले नवजात शिशु भी आनुवंशिक बीमारियों के शिकार हो सकते हैं। डॉ प्रभात, एसोसियेट प्रोफेसर, एम्स, गोरखपुर ने इस संदर्भ में आईस्ाीएमआर के निदान प्रोजेक्ट के विषय में ज्ञानवर्धन किया। यदि इन बीमारियों का जन्म के समय ही पता लगा लिया जाये तो बच्चों को मानसिक विकास अवरुद्ध होने से बचाया जा सकता है।
प्रोफेसर अरुण कुमार हरित, अमृता इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़, फ़रीदाबाद ने हीमोग्लोबिन विसंगतियों में प्ंA१ण् मापने के लिये म्aज्ग्त्त्arब् इलेक्ट्रोफ़ोरेसिस जैसी नयी तकनीक के महत्व का वर्णन किया।
महामना पंडित मदन मोहन मालवीय कैंसर संस्थान से एसोसियेट प्रोफेसर डॉ प्रतिभा गावेल ने कैंसर के मरीज़ों में दवाओं के टॉक्सिक लेवल का पता करने हेतु जाँच पर बल दिया। बायोकेमिस्ट्री विभागाध्यक्ष डॉ मनीष राज कुलश्रेष्ठ तथा सीनियर प्रोफेसर डॉ वंदना तिवारी ने बताया कि इनमें से नेक्स्ट जनरेशन सीक्वेंसिंग के अतिरिक्त अधिकांश सुविधाएँ संस्थान में मौजूद हैं तथा इसके लिए प्रक्रिया भी चल रही है, जो शीघ्र पूर्ण होने की उम्मीद है।