सावन की परम्पराओं से दूर होती जा रही युवा पीढ़ी

जौनपुर।सावन माह हिन्दू रीति-रिवाज के दृष्टिकोण से शुभ और पवित्र माना जाता है। इस माह का हर किसी को इंतजार होता है। इसी महीने में भगवान शिव की पूजा अर्चना की जाती है। उनके लिए व्रत रखा जाता है। विवाहित महिलाएं अपने पति की दीर्घायु की कामना करती है। वही अविवाहित लड़कियां सोमवार का व्रत रख कर मनचाहा वर मांगती है। श्रृंगार विवाहित महिलाओं के सौभाग्य का प्रतीक है। जिसमें सबसे खास बात है हाथों को मेंहदी से सजाना। सावन में झूलों का भी विशेष महत्व होता है। सावन शुरू होते ही गांव में जगह-जगह झूला पड़ने लगता था। और महिलाएं शौक से झूलती थी। लड़कियां ससुराल से मायके आती थी। लेकिन वर्तमान पीढ़ी अब सावन के झूलें और अन्य परम्पराओं से कोसो दूर होती जा रही है। अब न तो पेड़ों पर झूलें डलते है न तो सावन के गीत सुनायी पड़ते है। सावन शुरू होने के बाद भी यह एहसास नहीं होता है कि सावन आ गया है। उमंग और खुमारी का संगम इसी महीने में हरियाली तीज पर खत्म होता है। सखियों को सुख-दुःख बांटने, साथ बैठकर मेंहदी लगाने की परम्परा फिर गीत सब सपने हो गए है। बच्चें अब झूला नही झूलते वीडियों गेम में मस्त रहते है। महिलाएं भी मोबाइल या टी0वी0 सीरियल देखने में समय व्यतीत कर देती है। सावन में झूलें की परम्परा का विलुप्त होने के पीछे का प्रमुख कारण की मनोेरंजन के भरपूर साधन उपलब्ध होना भी है। पहले का जमाना अब सपना हो गया है, नहीं तो गांव में सावन आते ही गली-कूचों और बगीचों में मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोली के बीच युवतियां झूलें का लुत्फ उठाया करती थी। अब न तो पहले जैसें बगीचें रह गए और न ही मोर और कोयल की मधुर आवाज सुनाई देती है। कई वर्षों से बिना झूलें का सावन बीत रहा है। सावन में कजरी और झूलों की समाप्त होती परम्परा के बारे में क्षेत्र स्थित खुदौली गांव निवासी बुजुर्ग ताराराम निषाद बताते है कि हमारे जमाने में कजरी और झूले का बड़ा महत्व होता था। आधुनिक युग में सावन के गीत, मेंहदी और झूलें की परम्परा गायब होती जा रही है। जिससे सावन अपना रंग नहीं बिखेर पाता है। अब सावन की खूश्बू भी कही नहीं महकती है। कुछ स्थानों को छोड दे तो इधर कस्बा में कही भी पेड़ पर झूला देखने को नहीं मिलेगा। इसका कारण तेजी से मकानों के निर्माण के लिए पेड़ों की कटाई और बांस न मिलना बताते है। इतना ही नही बल्कि डिजिटल के युग में लोग गेम और रील देखने और बनाने में व्यस्थ है। और लोग जरूरत के मुताबिक अपने घरों में रेडीमेंट झूला पर झूलकर मन संतुष्ट का लेते है। वर्षा में सावन में रीति-रिवाज और परम्पराएं इतिहास का हिस्सा बनती जा रहा है। जिससे लोग अपनी संस्कृति और परम्पराओं को खोते जा रहे है और प्रकृति के साथ जीवन जीने की परम्परा थमती जा रही है।